मुस्लिम प्रतिनिधित्व: तेजस्वी यादव की नई रणनीति बिहार में मुस्लिम प्रतिनिधित्व की दिशा बदल सकती है। चुनाव नज़दीक हैं, और महागठबंधन के लिए यह सबसे बड़ा इम्तिहान है — क्या मुसलमानों को इस बार असली नेतृत्व मिलेगा?
डॉ. मोहम्मद फारूक़, कलम टाइम्स न्यूज़ नेटवर्क
कोलकाता | 24 अक्टूबर 2025
मुस्लिम प्रतिनिधित्व एक बार फिर बिहार की राजनीति के केंद्र में आ गया है। तेजस्वी यादव की हालिया घोषणा ने राज्य की चुनावी तस्वीर को नई दिशा दे दी है। महागठबंधन की ओर से उन्हें मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित करना न सिर्फ़ लालू प्रसाद यादव की राजनीतिक विरासत का विस्तार है, बल्कि एक साहसिक कदम भी है जिसने एनडीए में हलचल मचा दी है। लेकिन अब सबसे अहम सवाल यह है — क्या इस नई राजनीतिक व्यवस्था में मुसलमानों को वह मुस्लिम प्रतिनिधित्व मिलेगा, जो उनकी आबादी, इतिहास और राजनीतिक महत्व के अनुरूप होना चाहिए?
मुस्लिम प्रतिनिधित्व के आंकड़े क्या कहते हैं
बिहार की कुल आबादी में लगभग 17 से 18 प्रतिशत मुसलमान शामिल हैं — यानी तकरीबन तीन करोड़ लोग। राज्य की 243 विधानसभा सीटों में से लगभग 38 सीटें ऐसी हैं जहाँ मुस्लिम प्रतिनिधित्व निर्णायक भूमिका निभाता है। इनमें सीमांचल, किशनगंज, अररिया, कटिहार, पूर्णिया, मधुबनी और दरभंगा जैसे इलाके सबसे अहम हैं।

2015 में जब महागठबंधन ने एनडीए को हराया था, तब एक भी मुस्लिम उपमुख्यमंत्री नहीं बनाया गया। कुछ मुस्लिम मंत्री ज़रूर बने, लेकिन उन्हें कभी भी नीति-निर्माण के वास्तविक दायरे में शामिल नहीं किया गया।
2020 के चुनावों के बाद मुस्लिम प्रतिनिधित्व और घट गया। मुसलमानों ने एकजुट होकर महागठबंधन का साथ दिया, लेकिन विधानसभा में उनके प्रतिनिधियों की संख्या 2015 के 24 से घटकर सिर्फ़ 19 रह गई। यह गिरावट दिखाती है कि राजनीतिक दलों ने मुस्लिम वोट को तो गिना, लेकिन उन्हें नेतृत्व देने योग्य नहीं समझा। अब जब सत्ता की नई सूरत बन रही है, तो यह नेतृत्व का खालीपन और भी साफ़ दिखता है।
राजनीतिक संतुलन की नई संभावना
तेजस्वी यादव के हालिया बयान — जिसमें उन्होंने कहा कि सरकार में एक से ज़्यादा उपमुख्यमंत्री होंगे — ने यह उम्मीद जगा दी है कि अब किसी मुस्लिम नेता को भी यह पद मिल सकता है। अगर ऐसा होता है, तो यह महागठबंधन की रणनीति के लिए बड़ा फ़ायदा साबित होगा। अटल बिहारी वाजपेयी के दौर में भी केंद्र की राजनीति में इसी तरह का सामाजिक-सांप्रदायिक संतुलन देखा गया था। बिहार जैसे जटिल सामाजिक ताने-बाने वाले राज्य में यह संतुलन केवल प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि अत्यावश्यक है।
मुस्लिम नेतृत्व की पुरानी विरासत
बिहार की राजनीति में हमेशा से मज़बूत मुस्लिम प्रतिनिधित्व रहा है। शहाबुद्दीन, अब्दुल बारी सिद्दीकी, शकील अहमद और तस्लीमुद्दीन जैसे नेताओं ने अपने-अपने दौर में प्रभावशाली भूमिका निभाई। लेकिन पिछले एक दशक में मुस्लिम नेतृत्व को लगातार हाशिए पर धकेला गया है। नीतीश कुमार के शासन में भी मुसलमानों को केवल औपचारिक पद मिले, असली निर्णय लेने का अधिकार कभी नहीं।
अगर तेजस्वी यादव वाकई बदलाव का प्रतीक बनना चाहते हैं, तो उन्हें केवल बयान नहीं बल्कि सत्ता के बँटवारे में न्याय दिखाना होगा।
महागठबंधन के लिए दांव बड़ा है
महागठबंधन में इस बार आरजेडी को 144, कांग्रेस को 70 और वीआईपी को 18 सीटें दी गई हैं। अगर इस अनुपात में मुस्लिम उम्मीदवारों को फिर से सीमित जगह दी जाती है, तो यह बिहार की हकीकत से अंधी राजनीति मानी जाएगी। सीमांचल क्षेत्र से किसी सक्षम मुस्लिम चेहरे को उपमुख्यमंत्री बनाना न केवल उस इलाके बल्कि पूरे राज्य की राजनीति को नया संतुलन दे सकता है। इससे जनता का भरोसा बढ़ेगा, साम्प्रदायिक सौहार्द मज़बूत होगा और चुनावी समीकरण भी महागठबंधन के हक में झुकेंगे।
राजनीतिक परिपक्वता की घड़ी
जब राहुल गांधी और तेजस्वी यादव ने वोटर अधिकार यात्रा में एक साथ हिस्सा लिया था, तब जनता में एक नई उम्मीद जगी थी। लेकिन कांग्रेस की देरी ने उस जोश को ठंडा कर दिया। अब, जब चुनाव में सिर्फ़ दो हफ्ते बाकी हैं, तेजस्वी यादव के पास यह आख़िरी मौका है कि वे अपनी राजनीतिक परिपक्वता दिखाएँ। अगर वे अपने उपमुख्यमंत्रियों में एक सक्षम और लोकप्रिय मुस्लिम नेता को शामिल करते हैं, तो यह स्पष्ट संदेश जाएगा कि बिहार की राजनीति अब केवल जातीय समीकरणों पर नहीं, बल्कि शामिलियत और न्याय पर आगे बढ़ रही है।
मुस्लिम प्रतिनिधित्व की असली परीक्षा
बिहार के मुस्लिम वोटर अब पहले जैसे नहीं रहे। वे जागरूक हैं, अपने राजनीतिक वजन से वाकिफ़ हैं और जानते हैं कि सिर्फ़ नारों से उनकी हिस्सेदारी तय नहीं होती। अगर महागठबंधन ने उन्हें असली मुस्लिम प्रतिनिधित्व दिया, तो यह जीत सिर्फ़ चुनावी नहीं बल्कि नैतिक भी होगी। लेकिन अगर वही पुराना रवैया जारी रहा, तो यह निराशा और खामोश विरोध तेजस्वी यादव के लिए भारी पड़ सकता है।






