बिहार एनडीए के संकल्प पत्र 2025 में विजन नीतीश को केंद्र में रखा गया है — एक करोड़ नौकरियों, महिलाओं को दो-दो लाख रुपये और हर ज़िले में उद्योग लगाने के वादों के साथ। लेकिन विपक्ष का सवाल है कि क्या यह सचमुच नीतीश का विजन है या बीजेपी की लिखी हुई स्क्रिप्ट?
By Qalam Times News Network
पटना | 31 अक्टूबर 2025
विजन की चमक या सियासी मृगतृष्णा
विजन शब्द बिहार की राजनीति में आज सबसे ज़्यादा सुना जा रहा है — और यही शब्द एनडीए के संकल्प पत्र में नीतीश कुमार की पहचान के रूप में गूंजता है। लेकिन सवाल यह है कि यह विजन बिहार को आगे ले जाने का रोडमैप है या सिर्फ़ एक सियासी नारा? एनडीए ने जो घोषणाएँ की हैं — एक करोड़ नौकरियाँ, हर ज़िले में औद्योगिक क्षेत्र, महिलाओं को दो-दो लाख रुपये — वे सुनने में जितनी आकर्षक हैं, ज़मीन पर उतनी ही अवास्तविक लगती हैं।

बीस वर्षों से सत्ता में बैठे एनडीए और पंद्रह वर्षों से मुख्यमंत्री रहे नीतीश कुमार का यही विजन अगर सही मायनों में काम करता, तो बिहार आज भी बेरोज़गारी, पलायन और अपराध के दलदल में क्यों फंसा रहता? नीति आयोग की ताज़ा रिपोर्ट बताती है कि बिहार की प्रति व्यक्ति आय अब भी देश में सबसे कम — ₹54,000 प्रतिवर्ष — है, जबकि राष्ट्रीय औसत ₹1,70,000 है। यह आँकड़ा किसी भी राजनीतिक विजन की असलियत बयान कर देता है।
विजन के वादे और हकीकत की ज़मीन
एनडीए ने संकल्प पत्र में दावा किया है कि अगले पाँच वर्षों में एक करोड़ नौकरियाँ दी जाएँगी और दस नए औद्योगिक पार्क बनेंगे। लेकिन सवाल यह है कि पिछले बीस वर्षों में उद्योगों का क्या हाल हुआ? पटना और हाजीपुर की इंडस्ट्रियल एस्टेट्स खुद बदहाल हैं; बिजली, परिवहन और निवेश का बुनियादी ढांचा अब भी अधूरा है। अगर यही हाल रहा तो नया विजन भी पुराने वादों की कब्रगाह में दफ़न हो जाएगा।
महिलाओं को दो-दो लाख रुपये की सहायता योजना सुनने में आकर्षक है, लेकिन इससे आत्मनिर्भरता की बुनियाद नहीं पड़ती। मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना के तहत पहले दस हज़ार रुपये दिए गए, अब कहा जा रहा है कि दो लाख और दिए जाएँगे। पर अब तक इस योजना का लाभ कुल महिला आबादी के दो प्रतिशत तक भी नहीं पहुँच सका है।
विजन के नाम पर मौन मुख्यमंत्री
संकल्प पत्र जारी करने के कार्यक्रम में नीतीश कुमार को बोलने का मौक़ा तक नहीं मिला। 26 सेकंड की प्रेस कॉन्फ़्रेंस में घोषणाएँ तो हुईं, पर संवाद गायब था। कांग्रेस ने इसे “झूठों का पुलिंदा” बताया — और इस पर नाराज़गी स्वाभाविक है। यह दृश्य सिर्फ़ एक राजनीतिक आयोजन नहीं बल्कि उस मौन की प्रतीक है जिसमें मुख्यमंत्री की आवाज़ भाजपा की स्क्रिप्ट में कहीं गुम हो गई है।
अशोक गहलोत ने पूछा कि बीस वर्षों के शासन का रिपोर्ट कार्ड कहाँ है? उन्होंने केंद्र और राज्य दोनों से सवाल उठाए — नौकरियाँ कहाँ हैं, अपराध क्यों बढ़ रहे हैं, पेपर लीक कब रुकेंगे, और वादों का हिसाब कौन देगा? इन सवालों का कोई जवाब एनडीए के विजन में नहीं है, सिर्फ़ आश्वासन है।
विजन और वोट की राजनीति
नीतीश कुमार का “विजन नीतीश” दरअसल अब “विजन एनडीए” बन चुका है। राजनीतिक गठबंधन की मजबूरी में उनका एजेंडा धीरे-धीरे भाजपा की प्राथमिकताओं में समा गया है। यह वही नीतीश हैं जिन्होंने कभी भाजपा से अलग होकर धर्मनिरपेक्ष राजनीति की बात की थी, और आज उसी पार्टी की लाइन दोहरा रहे हैं। सवाल यह नहीं कि नीतीश का विजन क्या है — सवाल यह है कि क्या अब भी वह उनका है?
बिहार को विजन नहीं, दिशा चाहिए
बिहार के सामने सबसे बड़ी चुनौती कोई नया विजन डॉक्युमेंट नहीं बल्कि उस विजन को ज़मीन पर उतारने की ईमानदारी है। बेरोज़गारी, शिक्षा, स्वास्थ्य और उद्योग की ठोस नीति के बिना कोई भी घोषणापत्र सिर्फ़ चुनावी जुमला रह जाएगा। बिहार को अब नारों की नहीं, नीतियों की ज़रूरत है; फोटोशूट की नहीं, भविष्य की ज़रूरत है। और शायद यही वह प्रश्न है जिसका उत्तर इस चुनाव में जनता देगी — कि यह विजन नीतीश का है, या बस भाजपा की लिखी पटकथा का नया अध्याय।






