चम्पारण से शुरू हुआ भाषाई सत्याग्रह — शमीम अहमद का आंदोलन हिन्दी और उर्दू की एकता, सांस्कृतिक पुनर्जागरण और भारतीय चेतना के पुनरुत्थान की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम है।
Qalam Times News Network
पटना | 16 अक्टूबर 2025
चम्पारण की धरती हमेशा से भारत की जागरूकता, सच्चाई और क्रांति की प्रतीक रही है। यही वह मिट्टी है जिसने एक शताब्दी पहले महात्मा गांधी को वह साहस दिया कि वे अंग्रेज़ों के अत्याचारों और नील की जबरन खेती के खिलाफ़ आवाज़ उठाएँ और इसी धरती से आज़ादी की पहली चिंगारी भड़की। आज वही चम्पारण एक बार फिर किसी नई इतिहास की शुरुआत कर रहा है, पर इस बार मैदान राजनीतिक नहीं बल्कि भाषाई है।

इस आंदोलन के केंद्र में एक नाम है — शमीम अहमद। वे पिछले तीस वर्षों से भारतीय भाषाओं की प्रगति और अस्तित्व के लिए काम करते आ रहे हैं और अब उन्होंने एक ऐसी मुहिम छेड़ दी है जो देश के बौद्धिक ज़मीर को झकझोर सकती है। उनकी माँग साफ़ है — हिन्दी को राष्ट्रीय भाषा और उर्दू को दूसरी राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिया जाए। यह माँग किसी भाषाई श्रेष्ठता या धार्मिक घमंड का प्रदर्शन नहीं बल्कि न्याय, संतुलन और सांस्कृतिक एकता की पुकार है।
शमीम अहमद केवल एक नेता नहीं बल्कि एक चिंतनशील कर्मयोगी हैं जिनकी जद्दोजहद ने व्यवहारिक परिणाम भी दिए हैं। पश्चिम बंगाल में उनकी पहल पर उर्दू को दूसरी राजभाषा का दर्जा मिलना भारतीय भाषायी राजनीति में ऐतिहासिक उपलब्धि रही है। अब वही शमीम अहमद चम्पारण से एक राष्ट्रीय स्तर की मुहिम चला रहे हैं, जिसका उद्देश्य हिन्दी और उर्दू दोनों भाषाओं को उनके वास्तविक स्थान पर प्रतिष्ठित करना है।
उनका मानना है कि भाषाएँ विभाजन नहीं करतीं, वे जोड़ती हैं। वे कहते हैं कि हिन्दी और उर्दू एक ही सांस्कृतिक धारा की दो लहरें हैं, दोनों एक ही सांस से निकली हैं और मिलकर भारत का सम्पूर्ण चेहरा बनाती हैं। उनका यह विचार वस्तुतः उस विभाजन की अवहेलना है जो अंग्रेज़ों ने ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के तहत भारत पर थोपा था।
हिन्दी और उर्दू का विवाद दरअसल भाषाई नहीं बल्कि राजनीतिक षड्यंत्र था। अंग्रेज़ों ने जब यह देखा कि भारतीयों को जोड़ने वाला सबसे मजबूत संबंध उनकी भाषा है, तो उन्होंने ‘Divide and Rule’ की नीति के तहत भाषा को धर्म से जोड़ दिया। उससे पहले तक भारत की साझा भाषा को ‘हिन्दवी’, ‘रीख़्ता’ या ‘देहलवी’ कहा जाता था। वह न हिन्दुओं की थी, न मुसलमानों की, बल्कि भारतीय जनता की साझी बोली थी। अमीर खुसरो ने इसी भाषा में गीत कहे, कबीर ने इसी में दोहे गाए, मीर और सौदा ने इसी में ग़ज़लें लिखीं। यही वह धागा था जिसने सदियों तक विभिन्न समुदायों को जोड़े रखा।
लेकिन अंग्रेज़ों ने जानबूझकर इस एकता को तोड़ने के लिए भाषा को मज़हब से जोड़ा। उन्होंने उर्दू को मुसलमानों की और हिन्दी को हिन्दुओं की भाषा घोषित कर दिया, और इस तरह एक ही भाषा को दो हिस्सों में बाँटकर राष्ट्र के हृदय में विभाजन का विष मिला दिया।
यह ज़हर इतना गहरा था कि आज़ादी के बाद भी उसका प्रभाव समाप्त नहीं हुआ। उर्दू धीरे-धीरे सरकारी संस्थानों, शिक्षा और सार्वजनिक जीवन से पीछे हटने लगी। उसे ‘अल्पसंख्यक भाषा’ कहकर हाशिये पर डाल दिया गया, जबकि उर्दू भारत की साझा धरोहर थी। दूसरी ओर हिन्दी को विकास का दर्जा मिला, लेकिन उसकी उन्नति अक्सर उर्दू के अपमान पर आधारित रही — यही वह गलती थी जिसने भारतीय संस्कृति के संतुलन को कमज़ोर कर दिया।
शमीम अहमद अब उसी संतुलन को पुनः स्थापित करने के लिये प्रयासरत हैं। उनका कहना है कि अगर भाषाओं को धर्म के आधार पर बाँटा गया तो राष्ट्र कभी एक नहीं हो सकता। उनके अनुसार हिन्दी और उर्दू दो शरीर नहीं बल्कि एक आत्मा के दो रूप हैं — हिन्दी भारत की पहचान है और उर्दू उसकी आत्मा।
शमीम अहमद का आंदोलन केवल विरोध का नहीं बल्कि निर्माण का भी आंदोलन है। उन्होंने घोषणा की है कि हर ज़िले में ऐसे पुस्तकालय स्थापित किये जाएँगे जहाँ हिन्दी, उर्दू और अन्य भारतीय भाषाओं की पुस्तकें उपलब्ध हों — ताकि नई पीढ़ी में पढ़ने‑समझने की संस्कृति विकसित हो। उनका विश्वास है कि भाषा पुस्तक से जीवित रहती है, और जो राष्ट्र पुस्तक से जुड़ा रहता है, वह कभी गुलाम नहीं होता।

यदि गांधीजी ने चम्पारण से नील की गुलामी के खिलाफ़ आंदोलन छेड़ा था, तो शमीम अहमद उसी धरती से भाषा की गुलामी के विरुद्ध युद्ध कर रहे हैं। गांधीजी ने कहा था — “सत्य और अहिंसा से अन्याय को हराओ”, और शमीम अहमद कहते हैं — “ज्ञान और प्रेम से नफ़रत को मिटाओ।” दोनों का लक्ष्य एक है — स्वतंत्रता। फर्क़ इतना है कि गांधीजी ने शारीरिक गुलामी से मुक्ति दिलाई, और शमीम अहमद मानसिक गुलामी से आज़ादी की बात कर रहे हैं।
अंग्रेज़ों ने भाषा बाँटकर राष्ट्र को तोड़ा था, और आज शमीम अहमद भाषा को जोड़कर राष्ट्र को एक करने निकले हैं। यह वही प्रयास है जो गांधीजी ने एक शताब्दी पहले किया था — लोगों को उनके अपने चेतन से मुक्त कराना।
चम्पारण एक बार फिर इतिहास रचने जा रहा है। पहले गांधीजी ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ सत्याग्रह किया था; अब शमीम अहमद भाषाई न्याय का सत्याग्रह कर रहे हैं। अगर गांधीजी की मुहिम ने हमें राजनीतिक स्वतंत्रता दी थी, तो सम्भव है कि शमीम अहमद की यह मुहिम हमें बौद्धिक स्वतंत्रता प्रदान करे। वे याद दिलाते हैं कि भाषाएँ जोड़ने के लिए होती हैं, बाँटने के लिए नहीं। जब भाषाएँ एक होंगी, तब दिल भी अपने आप एक हो जाएँगे। चम्पारण की यही मिट्टी फिर कह रही है — “हिन्दी हमारी पहचान है, उर्दू हमारी आत्मा, और इनके बिना भारत की तस्वीर अधूरी है।”
शमीम अहमद का संघर्ष केवल भाषा तक सीमित नहीं है, वह पूरी सभ्यता की अस्मिता के संरक्षण की लड़ाई है। वे इस सच्चाई को उजागर करते हैं कि हिन्दी‑उर्दू के बीच जो खाई दिखायी जाती है, वह प्राकृतिक नहीं बल्कि अंग्रेज़ी राजनीति का परिणाम है। औपनिवेशिक युग के प्रारम्भिक चरण में पूरा उत्तर भारत ‘हिन्दुस्तानी’ भाषा में बात करता था। तब धर्म और भाषा में कोई संघर्ष नहीं था। लेकिन अंग्रेज़ों ने यह भली‑भाँति समझ लिया कि यही भाषा भारतीय एकता की मज़बूत नींव है — और यदि इस नींव को तोड़ दिया जाए, तो भारत कभी एक नहीं रह सकेगा। उन्होंने अदालतों, विद्यालयों और सरकारी दफ्तरों में ऐसी नीतियाँ अपनाईं जिनमें हिन्दी को हिन्दुओं की और उर्दू को मुसलमानों की भाषा घोषित किया गया।

शमीम अहमद कहते हैं कि अंग्रेज़ों ने इस देश को बंदूक से नहीं बल्कि अपने फ़रमानों, पैराग्राफ़ों और पाठ्यक्रमों से बाँटा। उन्होंने शब्दों के पर्दे में नफरत बोई और राष्ट्र को भाषा के नाम पर दो हिस्सों में बाँट दिया। यही दरअसल वह मानसिक गुलामी थी जिसने आगे चलकर सांप्रदायिकता और राजनीतिक विभाजन को जन्म दिया।
शमीम अहमद की यह मुहिम उसी गुलामी के विरुद्ध एक वैचारिक बगावत है। उनका मत है कि हिन्दी और उर्दू दो अलग धाराएँ नहीं, बल्कि एक ही सांस्कृतिक नदी के दो किनारे हैं। एक देवनागरी में लिखी जाती है, दूसरी नस्तलीक़ लिपि में; एक ने संस्कृत से तेज़ लिया, दूसरी ने फ़ारसी और अरबी से रंग, पर दोनों की मिट्टी एक है — भारतीय।
चम्पारण की धरती ने हमेशा विद्रोह को जन्म दिया है, चाहे वह किसानों की आर्थिक गुलामी के खिलाफ़ हो या आज की मानसिक दासता के खिलाफ़। शमीम अहमद की मौजूदा मुहिम उसी परंपरा का विस्तार है। उन्होंने इस धरती पर लेखकों, कवियों, शिक्षकों और आम जनता को एक मंच पर लाकर हिन्दी और उर्दू की एकता का संदेश दिया है। उनके सेमिनार और मुशायरे केवल आयोजन नहीं, बल्कि बौद्धिक संगोष्ठियाँ हैं, जहाँ भाषा को धर्म से अलग रखने और शिक्षा के माध्यम से भाषाई चेतना को जगाने पर बल दिया जाता है।
उनका प्रस्ताव है कि हर ज़िले में सार्वजनिक पुस्तकालय खोले जाएँ, जहाँ हिन्दी, उर्दू और अन्य भारतीय भाषाओं का साहित्य सुलभ हो — ताकि नई पीढ़ी अपने सांस्कृतिक विरासत को पहचान सके। यह कदम केवल शैक्षिक नहीं बल्कि भाषाई क्रांति का अग्रदूत है।

शमीम अहमद की वाणी गांधी के सत्याग्रह की याद दिलाती है। गांधीजी ने चम्पारण में नील के किसानों के सम्मान की बात की थी, और आज शमीम अहमद उसी धरती से भाषाओं के सम्मान की बात कर रहे हैं। दोनों आंदोलनों में समानता है — दोनों ने अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाई; गांधीजी ने आर्थिक असमानता के विरुद्ध, और शमीम अहमद भाषाई असमानता के विरुद्ध। दोनों का मार्ग एक ही है — सत्य, ज्ञान और जागरूकता।
हिन्दी‑उर्दू विवाद का सबसे अहम पहलू यह है कि दोनों भाषाएँ एक ही राष्ट्र की पहचान की दो अभिव्यक्तियाँ हैं। उर्दू की कविता ने जहाँ दिल को भाषा दी, वहीं हिन्दी की गद्य परंपरा ने विचार को रूप दिया। दोनों ने मिलकर उस ‘हिन्दुस्तानी’ को गढ़ा जिसने गीत, सिनेमा, पत्रकारिता और साहित्य को भारत की आत्मा बनाया। शमीम अहमद इसी संतुलन को जीवित रखना चाहते हैं। उनका कहना है कि यदि एक भाषा को मिटा दिया गया तो दूसरी भी नहीं बचेगी, क्योंकि ये दोनों एक ही वृक्ष की शाखाएँ हैं जिनकी जड़ एक है।
उनका आंदोलन वस्तुतः एक नया “भाषा‑सत्याग्रह” है — जहाँ न तो हथियार है, न नारे, केवल समझ, अध्ययन और सम्मान का संदेश है। वे भाषा को हथियार नहीं, पुल बनाना चाहते हैं। उनका लक्ष्य है कि हिन्दी को उसका यथोचित राष्ट्रीय दर्जा मिले और उर्दू को वह स्थान जो भारत की साझा संस्कृति की आत्मा होने के नाते अपरिहार्य है। उनका मानना है कि जब तक हम अपनी भाषाओं को राजनीतिक पूर्वग्रहों से मुक्ति नहीं दिलाएँगे, तब तक अपनी सांस्कृतिक पहचान को सुरक्षित नहीं रख पाएँगे।
शमीम अहमद कहते हैं — अब समय आ गया है कि हम अंग्रेज़ों द्वारा खींची गई भाषाई लकीर को मिटाकर अपने पुरखों की साझा भाषा को पुनर्जीवित करें। यही उनका स्वप्न है — एक ऐसा भारत जहाँ हिन्दी और उर्दू मिलकर इस भूमि की संस्कृति, साहित्य और आत्मा का प्रतिनिधित्व करें। जिस दिन यह स्वप्न पूरा होगा, वह दिन भारत की दूसरी आज़ादी का दिन होगा — भाषाओं की आज़ादी, दिलों की आज़ादी और अस्मिता की आज़ादी का दिन।
चम्पारण, वह पवित्र भूमि जिसने गांधी के नेतृत्व में पहली बार अन्याय के विरुद्ध सत्य की शक्ति दिखाई थी, आज फिर एक नई चेतना से जाग उठी है। पर इस बार यह बगावत नील के खेतों से नहीं, बल्कि भाषा की इज़्ज़त, पहचान और समानता के लिए है। इसी धरती से ‘क़ायदे‑उर्दू’ शमीम अहमद ने हिन्दी को राष्ट्रीय भाषा और उर्दू को दूसरी राष्ट्रीय भाषा का दर्जा देने की मुहिम चलाकर इतिहास का नया पृष्ठ रचा है।
उनकी आवाज़ केवल भाषाई अधिकार की नहीं बल्कि राष्ट्र की बौद्धिक एकता को पुनर्जीवित करने की जंग है। शमीम अहमद के अनुसार भाषाएँ राष्ट्र का हृदय हैं — और हृदय को बांटा नहीं जा सकता। वे ‘हिन्दी‑उर्दू अकादमी’ के संरक्षक हैं और पिछले तीस वर्षों से भारतीय भाषाओं के विकास के लिए सतत कार्यरत हैं।
अब वे पूर्वी चम्पारण से पूरे देश में एक ऐसी मुहिम छेड़ चुके हैं जो भारतीय भाषाओं के बीच सद्भाव और समानता पर आधारित है। वे मानते हैं कि यदि भाषाओं को धर्म से अलग रखा जाए, तो राष्ट्र एक हो सकता है। वे कहते हैं — “हिन्दी और उर्दू एक आत्मा के दो चेहरे हैं, उन्हें अलग सोचना अपने आप को बाँटना है।”
शमीम अहमद का यह संघर्ष भारत की भाषाई चेतना के पुनरुत्थान की शुरुआत है — एक ऐसी क्रांति जो बताती है कि जब भाषाएँ एक होंगी, तब भारत सच्चे अर्थों में एक होगा।






