दुसाध समाज की राजनीति पर गहराई से नज़र: क्या मोदी के ‘हनुमान’ चिराग पासवान अब भी दुसाधों की सच्ची आवाज़ हैं, या उनकी राजनीति जातीय सीमाओं से निकलकर हिंदुत्व और विकास के नए गठजोड़ में बदल चुकी है?
By Qalam Times News Network | खुर्शीद आलम, पटना | 23 अक्टूबर 2025
दुसाधों की राजनीति और चिराग पासवान का नया चेहरा
दुसाध — बिहार की राजनीति का वह समुदाय जिसने दलित समाज को राजनीतिक ताक़त दी और रामविलास पासवान जैसे नेताओं को जन्म दिया। आज वही दुसाध समाज यह सवाल पूछ रहा है कि क्या चिराग पासवान, जो खुद को मोदी का हनुमान कहते हैं, वास्तव में उनकी आवाज़ हैं या सत्ता की राजनीति में सिर्फ एक मोहरा?
माथे पर बड़ा तिलक, हाथ में कलावा और चेहरे पर हिंदुत्व की पहचान लिए चिराग पासवान अब उस राह पर हैं जहाँ जातीय राजनीति और हिंदुत्व की रणनीति एक-दूसरे में घुलती जा रही हैं।
2020 का चुनाव: दुसाध वोट का बिखराव और चिराग की रणनीति
2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में चिराग पासवान ने एनडीए से अलग होकर 135 सीटों पर अकेले मैदान संभाला। सिर्फ एक सीट जीतने के बावजूद उन्होंने नीतीश कुमार के महादलित वोट बैंक में सेंध लगा दी। नतीजा — जदयू तीसरे नंबर की पार्टी बन गई और बीजेपी को 74 सीटों का फायदा हुआ।

उस चुनाव में चिराग की पार्टी को लगभग 6 प्रतिशत वोट मिले, जिनमें बड़ी भूमिका दुसाधों की थी। इसके बाद 2024 के लोकसभा चुनाव में एलजेपी (रामविलास) को 5 सीटों की सफलता मिली — जो संकेत था कि दुसाध समाज अब भी चिराग के साथ खड़ा है, लेकिन उनके राजनीतिक एजेंडे में बदलाव साफ झलक रहा है।
2025 विधानसभा में चिराग का संतुलित समीकरण
2025 के विधानसभा चुनाव के लिए एलजेपी (रामविलास) ने 29 उम्मीदवार घोषित किए। इनमें 5 राजपूत, 5 यादव, 4 भूमिहार और 4 पासवान (दुसाध) शामिल हैं।
यह वितरण बताता है कि चिराग अब केवल दुसाध या दलित राजनीति तक सीमित नहीं रहना चाहते। वे जातीय दायरे से आगे बढ़कर एक सामाजिक संतुलन साधने की कोशिश में हैं, जहाँ सवर्ण, पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक सभी को प्रतिनिधित्व मिले।
उनका नारा “बिहार फर्स्ट, बिहारी फर्स्ट” इस नई राजनीतिक सोच का प्रतीक बन चुका है।
दुसाध समाज की स्थिति और प्रभाव
बिहार जातीय सर्वेक्षण 2023 के अनुसार, दुसाध (पासवान) समुदाय की आबादी लगभग 69.43 लाख यानी 5.31 प्रतिशत है। यह बिहार की दूसरी सबसे बड़ी अनुसूचित जाति है और राजनीतिक रूप से सबसे संगठित भी।
इस समुदाय की मजबूत उपस्थिति मुजफ्फरपुर, खगड़िया, हाजीपुर, समस्तीपुर, और दरभंगा जैसे ज़िलों में है — जहाँ यह वोट बैंक किसी भी पार्टी की किस्मत तय कर सकता है।
फिर भी, सच यह है कि ग्रामीण इलाकों में आज भी दुसाध समाज सरकारी योजनाओं और आरक्षण की नीतियों पर निर्भर है। आर्थिक सशक्तिकरण का सपना अधूरा है, भले ही राजनीतिक प्रतिनिधित्व सबसे मजबूत दिखे।
रामविलास पासवान की विरासत और चिराग की दिशा
रामविलास पासवान ने 1969 में राजनीति शुरू की और दुसाधों को पहली बार सत्ता की मुख्यधारा में जगह दिलाई।
उन्होंने 1977 में हाजीपुर से रिकॉर्ड मतों से जीतकर इतिहास बनाया और दलित राजनीति को सम्मान दिलाया।
उनकी ताक़त हमेशा अपने समाज से आई — मगर उनकी सोच संघर्ष से ज़्यादा संतुलन की थी। उन्होंने सत्ता से लड़ाई नहीं, बल्कि साझेदारी की राजनीति चुनी।
अब चिराग पासवान उसी विरासत को हिंदुत्व और विकास के नए मिश्रण में ढाल रहे हैं।
क्या चिराग अब भी दुसाधों की आवाज़ हैं?
राजनीतिक विश्लेषकों की राय में चिराग “दलित 2.0” राजनीति के प्रतीक हैं — जहाँ दलित अधिकारों की बात टकराव से नहीं, बल्कि समावेश से की जाती है।
उन्होंने दुसाध समुदाय के मुद्दों को पूरी तरह छोड़ा नहीं, मगर अब वे अपनी पहचान को “दलित नेता” से “राष्ट्रीय हिंदू चेहरा” की ओर ले जा रहे हैं।
यह परिवर्तन उस राजनीतिक समझ का हिस्सा है, जिसमें जाति के बजाय विकास और पहचान की राजनीति केंद्र में है।
दुसाधों की विरासत, सत्ता की नई परिभाषा
चिराग पासवान की राजनीति आज एक मोड़ पर है — जहाँ दुसाधों की जड़ें और हिंदुत्व की शाखाएँ आपस में गुँथ रही हैं।
वह अपने पिता की तरह समाज के प्रतिनिधि हैं, लेकिन अब उनकी प्राथमिकता “सत्ता में स्थायी जगह” है, न कि केवल जातीय प्रतीक बनना।
तो सवाल अब यही है — क्या बिहार के दुसाध चिराग के इस नए रूप को अपना नेता मानेंगे, या फिर अपने पुराने “रामविलास मॉडल” की ओर लौटना चाहेंगे?






