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”मौलाना साद के भाषणों में कोई आपत्तिजनक बात नहीं”: कोविड केस के पाँच साल बाद जांच रिपोर्ट

दिल्ली के निज़ामुद्दीन मरकज़ के प्रमुख मौलाना मोहम्मद साद कंधलवी और तबलीगी जमात पर पाँच साल पहले कोविड फैलाने और लॉकडाउन तोड़ने के गंभीर आरोप लगे थे। लेकिन अब दिल्ली पुलिस क्राइम ब्रांच की मौजूदा जांच रिपोर्ट में यह स्पष्ट किया गया है कि मौलाना साद के लैपटॉप से बरामद भाषणों में “कुछ भी आपत्तिजनक” नहीं पाया गया। वहीं, हाल ही में दिल्ली हाईकोर्ट ने भी कहा कि सिर्फ़ मरकज़ में रहना महामारी के शुरुआती दिनों में सरकारी आदेशों का उल्लंघन नहीं माना जा सकता।

मौलाना साद के खिलाफ एफआईआर और शुरुआती आरोप

31 मार्च 2020 को हज़रत निज़ामुद्दीन थाने के तत्कालीन SHO की शिकायत पर मौलाना साद और अन्य के ख़िलाफ़ एफआईआर दर्ज की गई थी। आरोप यह था कि 21 मार्च 2020 को सोशल मीडिया पर एक ऑडियो वायरल हुआ, जिसमें कथित तौर पर मौलाना साद अपने अनुयायियों से लॉकडाउन और सोशल डिस्टेंसिंग की अनदेखी कर धार्मिक जलसे में शामिल होने की अपील कर रहे थे। इस आधार पर उनके ख़िलाफ़ आईपीसी की धारा 304 (ग़ैर इरादतन हत्या) समेत कई गंभीर धाराओं में केस दर्ज किया गया।

जांच रिपोर्ट: लैपटॉप से बरामद भाषण आपत्तिजनक नहीं

सूत्रों के मुताबिक़, मौजूदा जांच अधिकारी ने दिल्ली पुलिस मुख्यालय को जानकारी दी है कि मौलाना साद अब तक जांच में शामिल नहीं हुए। लेकिन जांच में जब्त किए गए लैपटॉप और इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से भाषणों का विश्लेषण किया गया और उनमें कोई भी आपत्तिजनक सामग्री नहीं मिली।
रिपोर्ट के अनुसार  एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया,“एक लैपटॉप और कुछ इलेक्ट्रॉनिक उपकरण डाटा निकालने के लिए एफएसएल (फॉरेंसिक साइंस लेबोरेटरी) में जमा कराए गए थे और उनकी रिपोर्ट अभी भी लंबित है। लैपटॉप में मौलाना साद के भाषण सुरक्षित थे, जिनका जांच के दौरान पहले ही विश्लेषण किया गया था और उनमें कोई भी आपत्तिजनक बात नहीं पाई गई।”

दिल्ली हाईकोर्ट का बड़ा फ़ैसला

पिछले महीने दिल्ली हाईकोर्ट ने तबलीगी जमात से जुड़े कई मामलों पर अहम निर्णय सुनाया। अदालत ने कहा कि “सिर्फ़ मरकज़ में रहना” सरकारी आदेशों का उल्लंघन नहीं माना जा सकता। इस फैसले के तहत 16 एफआईआर और उन पर आधारित आरोपपत्र रद्द कर दिए गए। ये मामले 70 भारतीय नागरिकों के ख़िलाफ़ दर्ज किए गए थे।
अदालत ने साफ़ किया कि महामारी के दौरान सरकारी पाबंदियों का पालन ज़रूरी था, लेकिन बिना ठोस सबूत के महज़ उपस्थिति के आधार पर किसी को अपराधी नहीं ठहराया जा सकता।

विदेशी नागरिकों पर लगे आरोप

मार्च 2020 में आयोजित तबलीगी जमात के अंतरराष्ट्रीय जलसे में 36 देशों के नागरिक शामिल हुए थे। पुलिस ने कुल 952 विदेशी नागरिकों के ख़िलाफ़ आरोपपत्र दाखिल किए।

ट्रायल के दौरान 44 विदेशी नागरिकों ने मुक़दमा लड़ने का विकल्प चुना, जबकि 908 ने दोष स्वीकार कर लिया और 4,000 से 10,000 रुपये तक के जुर्माने का भुगतान किया।

न्याय और निष्पक्षता पर बहस

क़ानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि इस मामले ने धार्मिक स्वतंत्रता, मीडिया नैरेटिव और प्रशासनिक कार्रवाई पर गंभीर सवाल खड़े किए। मौलाना साद और जमात के अन्य सदस्यों को पांच साल तक कानूनी अनिश्चितता झेलनी पड़ी। अब जबकि जांच रिपोर्ट में “कुछ भी आपत्तिजनक नहीं” मिला है और कई एफआईआर रद्द हो चुकी हैं, सवाल यह है कि क्या इस पूरे विवाद ने सामाजिक ध्रुवीकरण को और गहरा किया?

नतीजा और आगे का रास्ता

आज पाँच साल बाद तस्वीर साफ़ हो रही है कि आरोप जितने गंभीर थे, सबूत उतने ठोस नहीं थे। मौलाना साद के भाषणों से लेकर विदेशी नागरिकों पर दर्ज आरोपपत्र तक, कई बातें अदालत और जांच एजेंसियों के सामने टिक नहीं पाईं।

लेकिन अभी भी जांच पूरी तरह ख़त्म नहीं हुई है और अंतिम नतीजे का इंतज़ार है। फिलहाल इतना ज़रूर है कि यह मामला भारतीय न्याय व्यवस्था, पुलिस जांच और महामारी के दौर की प्रशासनिक चुनौतियों पर गहरी छाप छोड़ गया है।

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